Tuesday, January 5, 2016

गायों को सर्दी के तनाव से बचाएं!

जब सर्दियों में तापमान शून्य डिग्री सेंटीग्रेड के आस-पास होता है तो हमें गायों के दुग्ध-उत्पादन एवं आहार दक्षता पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती है. अन्य स्तनधारी जीवों की भांति गाय भी एक समतापी प्राणी है तथा इसे अपने शरीर का तापमान स्थिर रखने की आवश्यकता होती है. गाय का सामान्य तापमान लगभग 38 डिग्री सेंटीग्रेड होता है. जब वातावरणीय तापमान 38 डिग्री सेंटीग्रेड के करीब होता है तो पशु को अपना दैहिक तापमान बनाए रखने हेतु कोई अतिरिक्त ऊर्जा का व्यय नहीं करना पड़ता किन्तु इस तापमान में गिरावट के आरम्भ होते ही इन्हें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होने लगती है. इस ताप-परिधि को उष्मा-उदासीन अथवा ‘थर्मो-न्यूट्रल’ ज़ोन कहा जाता है. “थर्मो-न्यूट्रल ज़ोन” के अंतर्गत पशु अपने व्यवहार में परिवर्तन लाते हैं. जैसे सर्दी से बचाव हेतु वे अपने शरीर पर घने बाल उगा लेते हैं जबकि इनकी आहार ग्राह्यता पहले जैसी ही बनी रहती है. परन्तु उदासीन ताप परिधि से कम तापमान होने पर पशु को बहुत ठण्ड का अनुभव होने लगता है. ठंडी से बचने के लिए पशु अपनी उपचय दर बढाता है ताकि शरीर में गर्मी पैदा की जा सके. इसके कारण इसकी आहार या ऊर्जा आवश्यकता बढ़ने लगती है.

शीत-जनित तनाव का सामना करने हेतु सभी पशुओं की क्षमता भिन्न-भिन्न हो सकती है. शीत-प्रभावी तापमान वायु के तापमान पर निर्भर करता है. यदि वायु का तापमान पशु के दैहिक तापमान से अत्यधिक कम है तो शीत-जनित तनाव की संभावना भी अधिक होती है. तीव्र गति से चलने वाली ठंडी हवाएं पशु का दैहिक तापमान बहुत जल्दी ही कम कर देती हैं. यदि ऐसे में पशु को ठण्ड से न बचाया जाए तो यह न केवल इनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है अपितु उत्पादकता को भी कम कर सकता है. उदाहरण के लिए अगर वायु की गति 16 किलोमीटर प्रति घंटा हो तो 4 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान पशु को -2 डिग्री सेंटीग्रेड के बराबर लगता है, बशर्ते पशु के शरीर के बाल सूखे एवं घने हों. अतः गायों को तेज हवाओं एवं सूखे का सामना करने से पहले अपने दैहिक भार एवं तापमान को सामान्य बनाए रखने हेतु अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है अन्यथा ये शीघ्र ही शीत-जनित तनाव की शिकार हो सकती हैं. विभिन्न पशुओं की सर्दी सहने की क्षमता निम्न-लिखित कारकों पर निर्भर करती है.
अनुकूलन
जो गऊएँ शरद स्थानों पर रहती हैं वे अपने शरीर पर लंबे व घने बाल उगा लेती हैं ताकि इन्हें ठंडे मौसम में उष्मा के प्रति एक कुचालक आवरण मिल सके. बालों के इस आवरण से उनके शरीर की उष्मा में कोई क्षति नहीं होती परन्तु इन बालों का साफ़ एवं सूखा होना आवश्यक है. यदि बालों पर कोई गंदगी या नमी हो तो इनकी कुचालकता में कमी आ जाती है तथा इन्हें अन्य पशुओं की भांति सर्दी का अनुभव होने लगता है. जो पशु गर्म स्थानों पर रहने के लिए अनुकूलित हों, उनके शरीर में चर्बी का जमाव भी अपेक्षाकृत कम होता है तथा वे ठंडे स्थानों पर जाने पर तनाव ग्रस्त हो सकते हैं. अतः गायों को शीत-जनित तनाव से बचाने के लिए इनकी विभिन्न नस्लों को उन प्राकृतिक वातावरणीय परिस्थितियों में रखना चाहिए जिसके लिए ये अनुकूलित होती हैं. सर्दियों में ठंडे वातावरण के प्रति अनुकूलित न होने के कारण पशु शीत-जनित तनाव का शिकार हो सकते हैं.  
चर्बी
जिन पशुओं के शरीर पर चर्बी की मोटी परत होती है, वे सर्दी का सामना आसानी से कर लेते हैं क्योंकि चर्बी उष्मा की कुचालक होती है. चर्बी शरीर के आतंरिक भागों तथा पर्यावरण के बीच एक दीवार की भांति पशु को सर्दी से बचाती है. सर्दियों में आहार की आपूर्ति कम होने पर पशु इस चर्बी का क्षरण करके अपनी उपचय दर में वृद्धि करते हैं जिससे प्राप्त उष्मा का उपयोग दैहिक तापमान को सामान्य बनाए रखने हेतु किया जाता है.
उपचय दर
जब पशु ठंडे वातावरण में होते हैं तो ये अपनी उपचय दर बढ़ा लेते हैं ताकि अधिक उष्मा के उत्पादन से इनका दैहिक तापमान स्थिर रह सके. उपचय दर बढ़ने से पशु की भूख भी बढ़ जाती है तथा इसे अधिक ऊर्जायुक्त आहार की आवश्यकता पड़ती है.
शीत-जनित तनाव
यदि शरद ऋतु में दैहिक तापमान सामान्य से कम हो जाए तो ऊष्मा-अल्पता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. अधिक सर्दी में गायों का दैहिक तापमान 30-32 डिग्री सेंटीग्रेड होना आम बात है. इसे मामूली ऊष्मा-अल्पता  या “माइल्ड हाइपोथर्मिया” भी कहा जाता है. जब दैहिक तापमान 20 डिग्री सेंटीग्रेड अथवा इससे कम होने लगे तो इसे अत्यधिक ऊष्मा-अल्पता या “सीवियर हाइपोथर्मिया” कहते हैं. जब पशु का दैहिक तापमान 28 डिग्री सेंटीग्रेड से कम हो जाए तो यह स्वयं अपने ताप को सामान्य रखने में असमर्थ होता है. अतः इसके सामान्य तापमान को बनाए रखने हेतु इसे गर्म द्रव दिए जाते हैं तथा इसके चारों ओर का वातावरण भी गर्म रखा जाता है. ऊष्मा-अल्पता में पशु की दैहिक क्रियाएँ मंद होने लगती हैं तथा उपचय दर बहुत कम हो जाती है. शरीर के सतही भागों जैसे थन, वृष्ण, कानों एवं पूंछ की तरफ होने वाले रक्त प्रवाह में कमी होने लगती है ताकि उष्मा की हानि को रोका जा सके. इन परिस्थितियों में रक्त की अधिकतम मात्रा शरीर के आतंरिक भागों को गर्म रखने हेतु प्रयुक्त होती है. यदि ऊष्मा-अल्पता अधिक हो तो ह्रदय एवं श्वास गति में कमी आने के कारण पशु बे-सुध हो जाते हैं तथा इनकी मृत्यु भी हो सकती है. कई बार पशुओं में ‘हाइपोथर्मिया’ के लक्षण तो दिखाई नहीं देते परन्तु वातावरणीय तापमान के अत्यधिक कम होने से ये अपनी रख-रखाव ऊर्जा आवश्यकता को बढ़ा लेते हैं. परिणामस्वरूप पशु अपने दैहिक भार में गिरावट को रोकने के लिए अधिक ऊर्जायुक्त आहार लेने लगते हैं जिससे इनकी शुष्क पदार्थ ग्राह्यता बढ़ जाती है. यह सर्दी से बचाव हेतु आवश्यक भी है. इन परिस्थितियों में गायों के पोषण पर होने वाले खर्च में वृद्धि होती है तथा ये इस प्रकार अपने दैहिक भार में कमी को रोकने में सफल रहती हैं.
अनुसन्धान द्वारा ज्ञात हुआ है कि न्यूनतम समीक्षात्मक तापमान में प्रत्येक डिग्री सेंटीग्रेड की कमी होने पर पशु को अपनी ऊर्जा आवश्यकता में 2% की वृद्धि करनी पड़ती है. इन परिस्थितियों में पशुओं को अतिरिक्त ऊर्जा की आपूर्ति दाने द्वारा की जा सकती है क्योंकि ये अधिक मात्रा में चारा ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं. यदि पशुओं को बेहतर गुणवत्ता का आहार न मिले तो इनकी आहार ग्राह्यता में कमी हो सकती है तथा इनका दैहिक भार भी कम होने लगता है. शरद वातावरण में पशु अधिक गर्मी उत्पन्न करने के लिए अपनी दैहिक चर्बी का क्षरण करने लगता है ताकि इसे उपचय वृद्धि द्वारा उष्मा प्राप्त हो सके. इस उष्मा से पशु अपने दैहिक तापमान को सामान्य बनाए रखने हेतु उपयोग कर सकता है. ऎसी गायों के शरीर पर सर्दी से बचाव हेतु बालों का आवरण भी अपेक्षाकृत कम होता है तथा ये अपना दैहिक भार तीव्रता से कम करने लगती हैं. जो गऊएँ सर्दी से बचने के लिए अपने दैहिक भार में कमी करती हैं, उन्हें प्रसव क्रिया में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. जन्म के समय इनके बछड़ों का भार कम होता है तथा इनमें मृत्यु दर अधिक होती है. ये गऊएँ अपेक्षाकृत कम मात्रा में खीस उत्पादित करती हैं जिसकी गुणवत्ता खराब होने के कारण नवजात बछड़े अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाते. यदि ये जीवित बच भी जाएँ तो इन बछड़ों के दैहिक भार में वृद्धि दर काफी कम होती है. ये गऊएँ प्रसवोपरांत मद्काल लक्षण प्रकट करने में अधिक समय लेती हैं तथा देर से ग्याभिन होती हैं. इन पशुओं की प्रजनन क्षमता भी कम होती है. अतः ठण्ड से बचाने के लिए पशुओं का प्रबंधन बेहतर ढंग से किया जाना चाहिए. शीत-जनित तनाव से बचने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है.
·         पशुओं को यथासम्भव सर्दी से बचाएं. इनके दैहिक तापमान के न्यूनतम समीक्षात्मक स्तर तक पहुँचाने से पहले ही इन्हें अधिक ऊर्जायुक्त आहार जैसे दाने आदि की आपूर्ति आरम्भ कर देनी चाहिए.
·         पशुओं को ठंडी हवाओं से बचाएं. ठंडी हवा से दैहिक ताप में कमी होती है जिससे इन्हें तनाव हो सकता है.
·         सर्दियों में गायों के लेटने व बैठने के स्थान पर पुआल आदि बिछानी चाहिए ताकि ये अपनी दैहिक उष्मा का संरक्षण करके सर्दी से बच सकें.
·         सर्दी से बचाव के लिए पशुओं के शरीर पर जूट की बोरी या मोटे कपडे का आवरण रखा जा सकता है.
·         गायों के शरीर को साफ़-सुथरा व सूखा रखें. इनके बाल गंदे व गीले होने पर सर्दी को रोकने में असमर्थ होते हैं. इनके लिए सर्दियों की धूप अच्छी होती है.
·         सर्दियों में स्वच्छ पेय जल आपूर्ति अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है. पानी की कमी होने पर पशुओं की आहार ग्राह्यता भी कम होने लगती है. पशुओं को पीने के लिए ताजा पानी देना चाहिए क्योंकि यह अधिक ठंडा नहीं होता.

सर्दियों में वातावरणीय तापमान को नियंत्रित करना असंभव होता है परन्तु फिर भी पशुओं को शीत-जनित तनाव से बचाने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए. पशुओं को सर्दी से बचा कर हम इनके पोषण पर होने वाले खर्चों में कमी करके इनकी उत्पादक क्षमता में वृद्धि कर सकते हैं.  

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