Sunday, February 19, 2017

डेयरी पशुओं को ऍफ़.एम.डी. रोग से बचाएँ!


ऍफ़.एम.डी. रोग: मुँह-खुर या ऍफ़.एम.डी. रोग विषाणुओं (वायरस) द्वारा फैलने वाला एक संक्रामक रोग है जो गाय, बकरी, भेड़, सूअर आदि कई प्रजातियों में देखा गया है. यह रोग पशुओं से मनुष्यों में नहीं फैलता, परन्तु इसका संक्रमण रोग-ग्रस्त पशुओं से अथवा दूषित वायु, जल, चारे के माध्यम से भी हो सकता है. संक्रमित पशुओं के दूध को 20 मिनट से अधिक समय तक उबालने पर इस रोग के विषाणु या वायरस नष्ट हो सकते हैं. बड़े डेयरी फार्म में तो संक्रमित पशुओं को बाहर निकालना (कल्लिंग करना) ही एक उपयुक्त विकल्प हो सकता है. इस वायरस की लगभग सात किस्में हैं जो पशुओं में मुँह पका-खुर पका रोग के फैलने के लिए उत्तरदायी हैं. सभी वायरस प्रजातियों को नष्ट या निष्क्रिय करने के लिए कोई भी टीका बाज़ार में उपलब्ध नहीं है. वायरस संक्रमण यदि ऍफ़.एम.डी. का टीका संक्रमित पशु में मौजूद वायरस प्रजाति से मेल न खाए तो इसका कोई लाभ नहीं होता. संक्रामक ऍफ़.एम.डी. वायरस की पहचान केवल आधुनिक प्रयोगशाला में ही संभव है. इस रोग के कारण डेयरियों को अत्याधिक आर्थिक हानि उठानी पड़ती है. अतः इस रोग से बचाव हेतु अपने पशुओं को ऍफ़.एम.डी. से बचाव के टीके अवश्य लगवाएँ. ये टीके सभी सरकारी पशु-अस्पतालों में मुफ्त मिलते हैं.
रोग लक्षण: ऍफ़.एम.डी. विषाणु से संक्रमित होने के चौबीस घंटे से दस दिन की अवधि तक पशु में इस रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं. कुछ पशुओं में रोग लक्षण प्रकट होने में इससे अधिक देरी भी हो सकती है. बुखार होना, मुँह एवं खुर पर जख्म होना, भूख न लगना, शारीरिक भार में कमी आना, दूध उत्पादन में गिरावट होना, मुँह से लार व झाग निकलना, कंपकंपी होना, लंगड़ा कर चलना आदि इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं.
उपचार: लक्षण प्रकट होने पर कोई कारगर उपचार नहीं है परन्तु मुँह एवं खुर के जख्मों को पोटाशियम परमैंगनेट के घोल में धोया जा सकता है ताकि संक्रमण अन्य पशुओं तक न फ़ैल सके. मुँह के घावों पर ग्लिसरीन का उपयोग करना चाहिए. खुरों को पानी एवं फिनाइल के मिश्रण से धोया जा सकता है. पशुओं को खाने के लिए नर्म चारा ही देना चाहिए ताकि मुँह के घावों के कारण इसे खाने में कोई परेशानी न हो. रोगी पशुओं को स्वस्थ पशुओं से सदैव दूर रखना चाहिए. स्वस्थ पशुओं में इस रोग के फैलाव को रोकने के लिए बचाव टीक अर्थात ऍफ़.एम.डी. वैक्सीन का प्रयोग करना चाहिए हालांकि सभी वर्गों के विषाणुओं को नष्ट करने हेतु फिलहाल कोई एक वैक्सीन बाज़ार में उपलब्ध नहीं है.
टीकाकरण: ऍफ़.एम.डी. के निष्क्रिय विषाणुओं को टीके द्वारा पशु के शरीर में पहुँचा देते हैं जिससे वह पशु अपनी रोग-प्रतिरोध क्षमता विकसित करने लगता है. पशुओं को भविष्य में संक्रमण होने पर यह रोग-प्रतिरोध क्षमता इनके बचाव में सहायक होती है. तीन से चार महीने की बछड़ी या बछड़े को पहला ऍफ़.एम.डी. बचाव टीका दिया जा सकता है. इसके एक महीने बाद दूसरा बूस्टर टीका लगवाना चाहिए ताकि इसकी प्रतिरोध क्षमता में सुधार हो सके. बाद में हर छह महीने के अंतराल पर ऍफ़.एम.डी. टीके लगवाने चाहिएं ताकि इस रोग के प्रकोप से बचा जा सके. ऍफ़.एम.डी. के टीके हर साल फरवरी-मार्च तथा सितम्बर-अक्टूबर के महीने में लगाए जा सकते हैं.
बाज़ार में उपलब्ध वैक्सीन: इस रोग से बचाव हेतु बहुत –सी कंपनियों की वैक्सीन उपलब्ध है. उदहारण के लिए एम.एस.डी. द्वारा बेची जाने वाली ऍफ़.एम.डी. वैक्सीन सीरो-टाइप ए, ओ तथा एशिया-1 विषाणुओं के लिए प्रतिरोधी है जो गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि में ऍफ़.एम.डी. संक्रमण रोकने हेतु दिया जा सकता है. बड़े पशुओं में इसकी मात्रा दो मिली तथा छोटे पशुओं में एक मिली इंट्रा-मस्कुलर टीके द्वारा दी जाती है. सभी रोग-प्रतिरोधी टीके पशु-चिकित्सक के परामर्श एवं सहायता से ही पशुओं को लगाए जाने चाहिएं.
सावधानियाँ: अपने पशुओं हेतु सदैव अच्छी कंपनी द्वारा निर्मित वैक्सीन का ही उपयोग करें. वैक्सीन को हमेशा ठन्डे स्थान पर या फ्रिज में ही रखें. उच्छ-तापमान पर यह प्रभावहीन हो जाती है. बीमार अथवा रोग-ग्रस्त पशुओं को बचाव टीका न लगवाएँ. टीका लगाने से पूर्व इसे अच्छी तरह हिला लें. यथासंभव ठन्डे मौसम में ही टीकाकरण होना चाहिए. टीकाकरण अन्य पशुओं की उपस्थिति में न करें क्योंकि इससे कुछ पशु डर कर तनावग्रस्त हो सकते हैं. टीका लगाने के बाद मामूली सूजन हो सकती है जो एक सामान्य बात है. आवश्यकता पड़ने पर वहाँ एंटीसेप्टिक दवा का प्रयोग किया जा सकता है.

जब दूध सस्ता हो तो किसान क्या करें?

हमारे डेयरी किसान गाय और भैंस पालन करके अपनी मेहनत से अधिकाधिक दूध उत्पादित करने में लगे हैं परन्तु यह बड़े दुःख की बात है कि उन्हें इस ...