Saturday, January 30, 2016

मशीन मिल्किंग द्वारा दूध निकालें

आधुनिक मशीन मिल्किंग प्रणाली का सर्वप्रथम उपयोग डेनमार्क व नीदरर्लैंड में हुआ. आजकल यह प्रणाली दुनिया भर के हज़ारों डेयरी फार्मों द्वारा उपयोग में लाई जा रही है. मशीन मिल्किंग का एक छोटा प्रारूप भी है जिसे 10 से भी कम पशुओं के लिए सुगमता से उपयोग में लाया जा सकता है. इसके द्वारा गायों व भैंसों का दूध अधिक तीव्रता से निकाला जा सकता है. मशीन मिल्किंग में पशुओं की थन कोशिकाओं को कोई कष्ट नहीं होता जिससे दूध की गुणवत्ता तथा उत्पादन में वृद्धि होती है.


मशीन मिल्किंग की कार्य प्रणाली बहुत सरल है. यह पहले तो निर्वात द्वारा स्ट्रीक नलिका को खोलती है जिससे दूध थन में आ जाता है जहाँ से यह निकास नली में पहुँच जाता है. यह मशीन थन मांसपेशियों की अच्छी तरह मालिश भी करती है जिससे थनों में रक्त-प्रवाह सामान्य बना रहता है. मशीन मिल्किंग द्वारा दूध निकालते हुए गाय को वैसा ही अनुभव होता है जैसाकि बछड़े को दूध पिलाते समय होता है. मशीन मिल्किंग द्वारा दूध की उत्पादन लागत में काफी कमी तो आती ही है, साथ साथ समय की भी भारी बचत होती है. इसकी सहायता से पूर्ण दुग्ध-दोहन संभव है जबकि परम्परागत दोहन पद्धति में दूध की कुछ मात्रा अधिशेष रह जाती है. मशीन द्वारा लगभग 1.5 से 2.0 लीटर तक दूध प्रति मिनट दुहा जा सकता है. इसमें न केवल ऊर्जा की बचत होती है बल्कि स्वच्छ दुग्ध दोहन द्वारा उच्च गुणवत्ता का दूध मिलता है.

गाय तथा भैंस के थनों के आकार एवं संरचना में अंतर होता है, इसलिए गाय का दूध दुहने वाली मशीन में आवश्यक परिवर्तन करके इन्हें भैसों का दूध निकालने हेतु उपयोग में लाया जा सकता है. भैसों के दुग्ध दोहन हेतु अपेक्षाकृत भारी क्लस्टर, अधिक दाब वाला वायु निर्वात एवं तीव्र पल्स दर की आवश्यकता होती है. क्लस्टर का बोझ सभी थनों पर बराबर पड़ना चाहिए. सामान्यतः गाय एवं भैंस का दूध निकालने के लिए एक ही मशीन का उपयोग किया जाता है जिसमें वायु निर्वात दाब लगभग एक जैसा ही होता है परन्तु भैंसों के लिए पल्स दर अधिक होती है. मशीन मिल्किंग का समुचित लाभ उठाने के लिए इसका उपयोग सावधानी से किया जाना चाहिए. दूध निकालने वाला ग्वाला तथा भैंस दोनों का मशीन से परिचित होना आवश्यक है. यदि भैंसें मशीन के शोर से डरती हैं अथवा कोई कष्ट अनुभव करें तो वे दूध चढ़ा लेंगी जिससे न केवल डेयरी या किसान को हानि हो सकती है अपितु मशीन मिल्किंग प्रणाली से विश्वास भी उठ सकता है.

नव-निर्मित डेयरी फ़ार्म में मशीन मिल्किंग को धीरे-धीरे उपयोग में लाना चाहिए ताकि भैंसें एवं उनको दुहने वाले व्यक्ति इससे भली-भाँति परिचित हो जाएँ. किसी भी फ़ार्म पर मशीन मिल्किंग आरम्भ करने से पहले निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है.

• दुग्ध-दोहन करने वाले व्यक्ति को मशीन मिल्किंग का प्रशिक्षण इसकी निर्माता कंपनी द्वारा दिया जाना चाहिए ताकि उसे मशीन चलाने के साथ साथ इसकी साफ़-सफाई एवं रख-रखाव संबंधी पूर्ण जानकारी मिल सके.

• सबसे पहले प्रथम ब्यांत की भैंसों का दूध मशीन द्वारा निकालना चाहिए क्योंकि इन्हें हाथ से दूध निकलवाने की आदत नहीं होती. ऐसी भैंसों के थन, आकार एवं प्रकार में लगभग एक जैसे होते हैं तथा अधिक उम्र की अन्य भैंसों के विपरीत इनकी थन-कोशिकाएं भी स्वस्थ होती हैं.

• सर्वप्रथम दूध दुहने के समय शांत रहने वाली भैसों को ही मशीन मिल्किंग हेतु प्रेरित करना चाहिए. प्रायः जिन भैसों को हाथ द्वारा दुहने में कठिनाई होती हो, वे मशीन मिल्किंग के लिए भी अनुपयुक्त होती हैं.

• दूसरे एवं इसके बाद होने वाले ब्यांत की भैंसों को हाथ से दुहते समय, मशीन मिल्किंग पम्प चलाते हुए क्लस्टर को समीप रखना चाहिए ताकि भैंस को इसके शोर की आदत पड़ जाए. भैंस को इस प्रकार मशीन का प्रशिक्षण देते समय बाँध कर रखना चाहिए ताकि वह शोर से अनियंत्रित न हो सके.

• मशीन को भैंसों के निकट ही रखना चाहिए ताकि वे न केवल इन्हें देख व अनुभव कर सकें बल्कि इससे उत्पन्न होने वाले शोर से भी परिचित हो सकें.

• मशीन द्वारा दूध निकालते समय यदि भैंस असहज अनुभव करे तो पुचकारते हुए उसके शरीर पर हाथ फेरना चाहिए ताकि वह सामान्य ढंग से दूध निकलवा सके.

उपर्युक्त बातों का ध्यान रखते हुए भैसों को शीघ्रता से मशीन द्वारा दुग्ध-दोहन हेतु प्रेरित किया जा सकता है. फिर भी कई भैंसें अत्यधिक संवेदनशील एवं तनाव-ग्रस्त होने के कारण मशीन मिल्किंग में पूर्ण सहयोग नहीं कर पाती. ऐसी भैंसों को परम्परागत ढंग से हाथ द्वारा दुहना ही उचित रहता है. मशीन मिल्किंग प्रणाली को अपनाने के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन तथा सकारात्मक सोच की आवश्यकता होती है. इसके द्वारा स्वच्छ दुग्ध उत्पादन सुनिश्चित होता है. इसकी सहायता से डेयरी किसान अपनी कार्यकुशलता में वृद्धि ला सकते हैं, जिससे दूध की उत्पादन लागत में काफी कमी लाई जा सकती है.

यदि दिन में दो बार की अपेक्षा तीन बार दूध निकाला जाए तो पूर्ण दुग्ध-काल में 20% तक अधिक दूध प्राप्त हो सकता है. स्वच्छ दूध स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है तथा बाजार में इसके अच्छे भाव भी मिलते हैं. इस प्रकार निकाले गए दूध में कायिक कोशिकाओं तथा जीवाणुओं की संख्या काफी कम होती है जो इसके अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप होती है. दूध में किसी प्रकार की कोई बाहरी अशुद्धि जैसे धूल, तिनके, बाल, गोबर अथवा मूत्र मिलने की कोई संभावना नहीं रहती. इस प्रक्रिया में ग्वाले के खाँसने व छींकने से फैलने वाले प्रदूषण की संभावना भी नहीं रहती. आजकल मिल्किंग मशीने कई माडलों में उपलब्ध हैं जैसे एक बाल्टी वाली साधारण मशीन अथवा बड़े डेयरी फ़ार्म हेतु अचल मशीन. सुगमता से उपलब्ध होने के कारण इन्हें आजकल स्थानीय बाजार से अत्यंत स्पर्धात्मक दरों पर खरीदा जा सकता है.

Thursday, January 28, 2016

पशु परिवहन कैसे करें?

आजकल पशुओं को विभिन्न व्यावसायिक कारणों से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना पड़ता है. इन परिस्थितियों में पशुओं के चोटिल एवं तनावग्रस्त होने की संभावना सर्वाधिक होती है. पशुओं को अधिकतर ऐसे ट्रकों में लाद कर ले जाया जाता है, जिसमें खड़े रहने के लिए पर्याप्त जगह भी नहीं होती. इन्हें लंबे समय तक बिना पानी या चारे के यात्रा हेतु मजबूर किया जाता है, जिससे कई पशु रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. जो पशु अपने गंतव्य स्थल पर पहुँचते हैं, वे शारीरिक व मानसिक रूप से अत्याधिक तनाव-ग्रस्त हो जाते है, फलस्वरुप इन्हें सामान्य अवस्था में लाने के लिए कई दिन लग जाते हैं. अतः परिवहन के दौरान पशु कल्याण पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता है. 

पशु परिवहन में जोखिम 

लगातार कई घंटे तक सफर करने से पशुओं का शारीरिक भार दस प्रतिशत तक कम हो जाता है. पशु परिवहन के दौरान इनकी रोग-प्रतिरोध क्षमता भी कम हो जाती है तथा ये जल्द ही रोगों से ग्रस्त होने लगते हैं. ऐसे पशुओं में मृत्यु दर भी अधिक होती है. एक अनुसंधान रिपोर्ट के अनुसार बछड़ों का रोग-प्रतिरोध तंत्र पूर्णतया विकसित नहीं होता है. ये लंबे सफर के दौरान अपना शारीरिक तापमान नियंत्रित नहीं रख पाते तथा ताप- एवं शीत-घात सहने में असमर्थ होते हैं. परिणाम-स्वरुप ये बछड़े परिवहन के बाद बीमार हो जाते हैं तथा इनमें मृत्यु दर बढ़ने की आशंका अधिक होती है.
  1. आजकल पशुओं को भी मनुष्य की भांति तनाव-रहित एवंकल्याणकारी वातावरण में रहने का अधिकार है ताकि येअधिक बेहतर ढंग से मानव-जाति के काम  सकेंपशुकल्याण  केवल कानूनी दृष्टि से आवश्यक है,परन्तु इसकेकई मानवीय पक्ष भी उतने ही महत्वपूर्ण हैंपशुओं कोपरिवहन के लिए ले जाते समय निम्न-लिखित बातों पर ध्यानदेना अत्यंत आवश्यक है-
    • पशुओं के मालिकों एवं प्रबंधकों का यह दायित्व है कि जिन पशुओं को परिवहन द्वारा अन्यत्र ले जाना है, उनका स्वास्थ्य ठीक हो तथा वे यात्रा करने के लिए पूर्णतया सक्षम हों. 
    • पशुओं के परिवहन हेतु एक उपयुक्त वाहन की आवश्यकता होती है ताकि सफर के दौरान पशुओं को कोई परेशानी या तनाव न हो. 
    • परिवहन हेतु प्रयुक्त वाहन में प्रत्येक पशु हेतु न्यूनतम स्थान की उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक है. इस सम्बन्ध में पशु चिकित्सक से परामर्श अवश्य ही कर लेना चाहिए. 
    • पशु-परिवहन से पूर्व मौसम अनुकूल होना चाहिए ताकि यात्रा के दौरान इन्हें स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों का सामना न करना पड़े. 
    • यात्रा के दौरान पशुओं की देख-रेख के लिए एक प्रशिक्षित व्यक्ति का साथ होना अनिवार्य है. यदि कोई और व्यक्ति उपलब्ध न हो तो यह गाड़ी के चालक का दायित्व है कि वह समय-समय पर पशुओं पर नज़र बनाए रखे. 
    • यात्रा के दौरान निश्चित समय पर गाड़ी रोक कर पशुओं को आराम देना आवश्यक है. आपात परिस्थितियों में चिकित्सकीय उपकरण एवं परामर्श हेतु पशु-चिकित्सक उपलब्ध होना चाहिए. 
    • पशुओं के खरीदार व विक्रेता दोनों का ही यह कर्तव्य है कि पशुओं के लदान व इन्हें गंतव्य स्थल पर उतारने के लिए समुचित व्यवस्था उपलब्ध हो. 
    • पशुओं को परिवहन हेतु वाहन पर चढ़ाते व उतारते समय इनके साथ मानवीय व्यवहार होना चाहिए. पशुओं के लिए लंबे सफर के दौरान चारे व पानी की भी समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए. 
    • रोगी पशुओं का परिवहन अत्यंत सावधानी से होना चाहिए ताकि किसी बीमारी का फैलाव न हो. परिवहन से पहले व बाद में वाहन को कीटाणु-नाशक घोल द्वारा साफ़ किया जाना चाहिए.
    ·         यात्रा की अधिकतम समयावधि पशुओं की आयु एवं दैहिक अवस्था पर निर्भर करती है. अधिक आयु वाले तथा ग्याभिन पशु अधिक समय तक यात्रा नहीं कर सकते. परिवहन के अंतर्गत होने वाली घटनाओं का लिखित उल्लेख लोग-बुक में किया जाना आवश्यक होता है.
    ·         पशुओं के परिवहन से सम्बंधित सभी पक्षों के लिए यह अनिवार्य है कि इसके लिए निर्धारित सभी नियमों एवं मापदंडों का अनुपालन कड़ाई से किया जाए ताकि यात्रा के दौरान उच्च-स्तरीय पशु-कल्याण व्यवस्था को सुनिश्चित किया जा सके.
    परिवहन हेतु वाहन
    परिवहन हेतु प्रयुक्त होने वाला वाहन पशुओं के आकार, प्रकार एवं भार पर निर्भर करता है. इस वाहन के अंदर की ओर कोई भी तीखी लोहे की कीलें या छडें नहीं होने चाहिएं क्योंकि इनसे पशुओं को शारीरिक आघात हो सकता है. वाहन को खराब मौसम से बचाने के लिए पर्याप्त छत की व्यवस्था होनी चाहिए. वाहन की बनावट पशुओं के लिए हवादार व आरामदेह होनी चाहिए ताकि धूप के समय इसका तापमान अधिक न होने पाए. वाहन में यथा-सम्भव कम से कम कोने या गड्ढे हों ताकि सफर के दौरान वाहन में मल-मूत्र जमा न होने पाए तथा इसकी सफाई आसानी से हो सके. ज्ञातव्य है कि साफ़-सुथरे पशु-वाहनों में रोगों का संक्रमण रोकना भी सम्भव हो सकता है. ये वाहन यांत्रिक दृष्टि से मजबूत बनावट वाले होने चाहिएं. वाहन में मल-मूत्र की निकासी हेतु पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए ताकि पशुओं को गन्दगी से बचाया जा सके.  वाहन का फर्श चिकना नहीं होना चाहिए. यदि आवश्यक हो तो नीचे पुआल आदि बिछाई जा सकती है.  वाहन में पशुओं के लिए बैठने का स्थान, उनके बैठने या खड़े रहने की प्रवृत्ति से भी निर्धारित होता है. सामान्यतः सूअरों तथा ऊंटों को बिठा कर व गायों, भैंसों, और  घोड़ों को खड़ा करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है. खड़ी अवस्था में ले जाए जाने वाले पशुओं को अपना संतुलन बनाए रखने के लिए वाहन में पर्याप्त स्थान उपलब्ध होना चाहिए. जब पशु खड़े हों तो उनका सर वाहन की छत से नहीं टकराना चाहिए. वाहन में पशुओं को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाना चाहिए कि प्रत्येक पशु का निरीक्षण आसानी से किया जा सके. छोटे आकार के जंतुओं को क्रेट में ले जाने के कारण छत नीचे रहती है अतः इनका निरीक्षण कठिन होता है. ऐसे में इनके लिए लगातार लंबा सफर ठीक नहीं रहता. परिवहन के लिए पशुओं को ले जाते समय इनका बीमा करवाना भी ठीक रहता है. ऐसा करने से परिवहन के दौरान जोखिम का ख़तरा कम हो जाता है. यदि सफर सामान्य से अधिक लंबा हो तो इन्हें चारा व पानी दे कर ही परिवहन हेतु आगे ले जाना चाहिए.
    एक जैसे पशु इकट्ठे ले जाएँ
    एक ही ग्रुप में रहने वाले पशुओं को एक साथ परिवहन हेतु ले जाना चाहिए क्योंकि ये एक दूसरे के स्वभाव से परिचित होते हैं तथा इनमें एक प्रकार का सामाजिक सम्बन्ध भी स्थापित हो जाता है. आपस में लड़ने वाले पशुओं को कभी भी एक साथ न ले जाएँ. कम आयु के पशुओं को, अधिक आयु के पशुओं के साथ भी ले जाना ठीक नहीं होता. इसी तरह सींग वाले पशुओं के साथ, बिना सींग वाले पशुओं का परिवहन नहीं होना चाहिए. विभिन्न प्रजाति के पशुओं को एक साथ ले जाना भी हितकारी नहीं है क्योंकि इनके स्वाभाव एक दूसरे के विपरीत हो सकते हैं. जिन पशुओं को पूर्व में परिवहन का अनुभव होता है उन्हें अन्यत्र ले जाने में अपेक्षाकृत कम कठिनाई होती है. अस्वस्थ पशुओं का परिवहन नहीं होना चाहिए परन्तु यदि यह कार्य चिकित्सा हेतु किया जा रहा है तो स्वीकार्य होता है. अतः परिवहन हेतु पशुओं का चुनाव सावधानी-पूर्वक किया जाना चाहिए. अंधे, बीमार, कमज़ोर अथवा लंगड़ेपन जैसी व्याधियों से पीड़ित पशु परिवहन हेतु अनुपयुक्त होते हैं. शीघ्र ही ब
    ब्याने वाले पशुओं को भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं ले जाना चाहिए. इसी प्रकार जो पशु शारीरिक रूप से अत्यंत दुर्बल या बहुत मोटे हों, वे विपरीत वातावरणीय परिस्थितियों व लंबे सफर के तनाव को नहीं झेल सकते. अतः ऐसे पशुओं का परिवहन भी नहीं होना चाहिए. परिवहन के दौरान पशुओं के व्यवहार का समुचित ध्यान रखना चाहिए. क्योंकि जो कार्य एक प्रजाति के पशु के हित में हो वह दूसरी प्रजातियों के पशुओं के भी हित में हो, यह आवश्यक नहीं है. इसलिए पशुओं के परिवहन हेतु योजनाबद्ध ढंग से कार्य होना चाहिए.
    परिवहन हेतु लदान
    पशुओं को वाहन में चढाते समय उत्तेजित नहीं करना चाहिए. लदान का कार्य किसी प्रशिक्षित व्यक्ति की देख-रेख में ही संपन्न होना चाहिए. लदान के दौरान पशुओं से किसी प्रकार की मार-पीट नहीं होनी चाहिए अन्यथा उन्हें गहरी चोट लग सकती है. पशुओं को चढाने के लिए तैयार की गई ढलान व रास्ते इनके आकार एवं क्षमता के अनुकूल होने चाहिएं ताकि इन्हें चढ़ते समय कोई परेशानी न हो. वाहन में प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए ताकि पशुओं को चढ़ते समय कोई डर न लगे. आवश्यकता से अधिक पशुओं का परिवहन करते समय उन्हें वाहन में ठूंसना नहीं चाहिए अन्यथा दम घुटने से इनकी मृत्यु भी हो सकती है. वाहन में लदान के समय किसी भी प्रकार का बल-प्रयोग अनुचित होता है. छोटे पशुओं जैसे बकरी आदि को उठा कर भी वाहन में चढाया जा सकता है परन्तु इन्हें पटकना नहीं चाहिए. लदान के बाद वाहन को अपेक्षाकृत कम गति पर ही चलाना चाहिए ताकि पशुओं को यात्रा के दौरान झटके आदि न लगें. एक दम ब्रेक अथवा गति देने से पशुओं को धक्का लगता है तथा ये चोटिल भी हो सकते हैं. अतः इस कार्य के लिए प्रशिक्षित वाहन चालक को ही कार्य पर लगाया जाना चाहिए. यात्रा के दौरान थोड़े-थोड़े अंतराल पर पशुओं को देखते रहना चाहिए. स्वस्थ पशुओं का परिवहन करते समय वाहन में किसी मृत पशु को नहीं ले जाना चाहिए. यात्रा के दौरान पशुओं की चारे व पानी की आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहनी चाहिए. लंबे सफर के दौरान पशुओं को आराम करने का समय भी दिया जाना चाहिए क्योंकि ये लंबे सफर का तनाव झेलने में अक्षम होते हैं.
    पशुओं को वाहन से कैसे उतारें?
    गंतव्य स्थल तक पहुँचने तक पशु बहुत थक जाते हैं. इन पशुओं को सावधानीपूर्वक ही वाहन से उतारना चाहिए. किसी प्रकार की जल्दी पशुओं के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है. ध्यातव्य है कि पशुओं को नीचे उतारते समय वाहन व प्लेटफार्म का स्तर एक जैसा हो. प्लेटफार्म की ढलान में किसी तरह की फिसलन नहीं होनी चाहिए. पशुओं को उतारते समय अनावश्यक शोर-गुल नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे पशुओं में खलबली मच सकती है. सफर के दौरान चोटिल हुए पशुओं को तुरंत ही चिकित्सक की सुविधा मिलनी चाहिए. ऐसे पशुओं को अन्य पशुओं से अलग रखा जाना चाहिए. पशु परिवहन के दौरान पशुओं में रोग संक्रमण होने की संभावना सर्वाधिक होती है अतः ऐसे वाहनों को प्रयोग के बाद कीटाणुनाशक घोल द्वारा साफ़ करना चाहिए ताकि अन्य पशुओं का परिवहन करते समय कोई रोग न फैलने पाए. वाहन से उतारने के बाद पशुओं की चिकित्सकीय जांच आवश्यक होती है ताकि प्रभावित पशुओं का समय पर इलाज किया जा सके. पशुओं को पर्याप्त चारा व पेय जल उपलब्ध करवाना चाहिए ताकि ये धीरे-धीरे अपने सामान्य जीवन की ओर लौट सकें. यूरोप में पशु परिवहन हेतु बनाए गए नियमों का पालन बड़ी कड़ाई से किया जाता है. यहाँ मांस के उत्पादन में प्रयुक्त छोटे जानवरों जैसे सूअर, बकरी व कम आयु वाले पशुओं के परिवहन हेतु अधिकतम समय सीमा छः घंटे ही निर्धारित की गई है जबकि गायों के लिए यह अवधि बारह घंटे तक हो सकती है.

    परिवहन के दौरान पशुओं के साथ मानवीय व्यवहार न केवल विधि-संगत है अपितु पशु-कल्याण सुनिश्चित करने से इनकी उत्पादकता एवं कार्यकुशलता में भी सुधार होता है. हालांकि भारत में परिवहन के दौरान पशु कल्याण का कोई विशेष ध्यान नहीं रखा जाता परन्तु यूरोप में इनके परिवहन के लिए दूरी एवं समय दोनों को ही यथा-सम्भव कम रखा जाता है. अतः परिवहन के समय पशु कल्याण सम्बन्धी व्यवस्था करने से डेयरी किसानों एवं पशु-पालकों को पूरा लाभ मिल सकता है।



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Monday, January 18, 2016

वर्तमान परिदृश्य में डेयरी पशु कल्याण

आजकल कृषि के साथ डेयरी पशुपालन का व्यवसाय किसानों के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध हो रहा है. परन्तु अधिक लाभ कमाने के लिए कुछ लोग पशुओं को चलती-फिरती फैक्टरी समझने लगते हैं जो सर्वथा अनैतिक है तथा पशु कल्याण हेतु स्थापित माप-दंडों का उल्लंघन है. पशुओं के कल्याण के विषय में सोचना न केवल हमारी नैतिक जिम्मेवारी है अपितु यह क़ानून संगत भी है कि हम पशुओं के साथ मानवीय व्यवहार करें. डेयरी पशु भी मानव की भांति प्रशिक्षित हो सकते हैं तथा उनमें शारीरिक वेदना अनुभव करने की शक्ति होती है. अतः इनके लिए बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चित करना बहुत आवश्यक है. यदि हम अपने पशुओं के कल्याण के बारे में चिंतित रहेंगे तो ये भी हमारी सेवा अधिक बेहतर ढंग से कर पाएंगे. यूं तो पशु कल्याण एक बहु-आयामी विषय है, फिर भी निम्न-लिखित बिंदुओं पर ध्यान देकर हम पशुओं के लिए अधिक कल्याणकारी वातावरण सुनिश्चित कर सकते हैं.
संकर नस्ल प्रजनन
आजकल गायों से अधिक दूध प्राप्त करने के लिए संकर प्रजनन प्रणाली अपनायी जा रही है जिसमें इनके कल्याण से जुडी अनेक समस्याओं की अनदेखी हो रही है. हालांकि पशु स्वास्थ्य एवं कल्याण सर्वोपरि होना चाहिए परन्तु कई बार छोटे आकार की नस्लों से अपेक्षाकृत बड़े आकार के होल्सटीन बच्चे पैदा किए जाते हैं जिससे स्थानीय नस्ल की गायों को प्रसवकाल के दौरान न केवल अधिक पीड़ा होती है अपितु यह इनके लिए जानलेवा भी हो सकता है. कम दूध देने वाले पशुओं को हटा कर विदेशी नस्लों से तैयार संकर पशु आर्थिक दृष्टि से तो उपयुक्त प्रतीत होते हैं परन्तु कुछ समय बाद इनमें प्रतिकूल वातावरणीय परिस्थितियों के कारण स्वास्थ्य संबंधी विकार उत्पन्न होने लगते हैं. अक्सर देखा गया है कि संकर नस्ल के पशु विपरीत वातावरणीय परिस्थितियों में स्वयं को ढाल नहीं पाते तथा शीघ्र ही बीमार हो जाते  हैं.  कभी-कभी संकर प्रजनन डेयरी पशुओं के लिए एक बड़ी चुनौती भी हो सकता है. इसलिए संकर प्रजनन करवाते समय सभी सम्बंधित पक्षों पर विचार करना आवश्यक है.
लंगड़ापन
यह पशुओं के लिए अत्यंत दुखदायी परिस्थिति है जिससे निजात पाना आवश्यक है. लंगड़ापन कई कारणों जैसे कुपोषण, दोषपूर्ण प्रजनन अथवा खराब आवासीय व्यवस्था से हो सकता है. हमें पशुओं के खान-पान पर विशेष ध्यान देना चाहिए ताकि उनकी हड्डियां मजबूत बनी रहें. लंगड़ापन जन्मजात विकृतियों के कारण भी हो सकता है. यदि पशुओं को चलने-फिरने योग्य पर्याप्त जगह न मिले तो इनकी टांगों में विकार हो सकते हैं जो सामान्य ढंग से चलने में बाधक होते हैं. परिवहन के दौरान पशुओं के साथ लापरवाही बरतने पर भी उन्हें मांसपेशियों में अत्याधिक खिंचाव होने का भय रहता है जिससे ये लंगड़े हो सकते हैं. कई बार पशुओं में भय के कारण मची भगदड़ भी लंगड़ेपन का कारण बन सकती है. अतः ऐसी सभी विपरीत परिस्थितियों में इनके कल्याण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है.
थनैला
यह रोग पशुओं के अयन में जीवाणुओं के संक्रमण के कारण होता है. इस रोग का फैलाव पशुओं को दुहते समय पर्याप्त साफ़-सफाई न रखने व संक्रमित अयन पर मक्खियों के बैठने से होता है. इसके कारण पशु को बहुत दर्द एवं असुविधा का सामना करना पड़ता है. यदि इस रोग का उपयुक्त उपचार न किया जाए तो यह जानलेवा भी सिद्ध हो सकता है. इस रोग के कारण दूध में कायिक कोशिकाओं की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है. संक्रमित पशुओं का दूध मानव उपयोग हेतु अनुपयुक्त हो जाता है. इस रोग के कारण डेयरी किसानों को न केवल आर्थिक हानि होती है बल्कि यह पशुओं के स्वास्थ्य एवं कल्याण में भी बाधक होता है. यह रोग अक्सर अधिक दुग्ध उत्पादित करने वाले पशुओं में होता है. हमारी देशी नस्लों की तुलना में यह रोग संकर नस्ल की गायों में कहीं अधिक होता है.
आवासीय व्यवस्था
यदि गायों को रहने के लिए पर्याप्त आवासीय स्थान उपलब्ध न करवाया जाए तो यह उनके कल्याण में बड़ी बाधाएं उत्पन्न कर सकता है. संकर प्रजनन द्वारा तैयार की गई कुछ गायों का आकार बहुत बड़ा होता है परन्तु शहरी इलाकों में इन्हें रहने के लिए पर्याप्त जगह नहीं मिल पाती है. बहुत-सी गायों को अक्सर तंग स्थान पर ठूंस दिया जाता है जहां ये अन्य पशुओं से टकराती रहती हैं जिससे इनमें तनाव बढ़ जाता है. अत्याधिक तनाव के कारण गाय आपस में लड़ती रहती हैं तथा डेयरी की उत्पादन क्षमता भी गिर जाती है. गायों को बैठने व लेटने के लिए छत वाली जगह के साथ-साथ टहलने के लिए भी पर्याप्त स्थान की आवश्यकता होती है. आवासीय समस्याओं से निजात पाने के लिए पशुओं को शहर के बाहर खुले स्थानों पर रखना अधिक बेहतर होता है. तंग स्थान पर पशुओं को सांस लेने के लिए ताज़ी हवा भी नहीं मिलती जिसके अभाव में ये अस्वस्थ रहते हैं. इसलिए गायों को प्रति-दिन कुछ समय बाहर खुले क्षेत्र में घास चरने एवं घूमने-फिरने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए. ऐसा करने से पशु सामाजिक दृष्टि से आपस में जुड़े रहते हैं तथा इन्हें कोई तनाव जैसी परेशानी भी नहीं झेलनी पड़ती. पशु खुली हवा में विचरण करने के कारण शारीरिक दृष्टि से भी हृष्ट-पुष्ट रहते हैं तथा इनका व्यवहार भी सामान्य बना रहता है.
पोषण एवं पेय जल
      स्वस्थ जीवन के लिए पोषण एवं जल का महत्व सर्वाधिक होता है परन्तु      गायों को पर्याप्त चारा व जल आपूर्ति न मिलने से ये कुपोषण का शिकार हो जाती हैं. ऐसी अवस्था में इनकी उत्पादकता भी कम हो जाती है. चारे के अभाव में कुछ लोग अपनी गायों को खुला छोड़ देते हैं तथा ये आवारा घूमते हुए जो भी मिल जाए- खा लेती हैं, जो ठीक नहीं है. ऎसी परिस्थितियों में कई बार गाय अखाद्य तथा जहरीली वस्तुएँ भी खा सकती है. आजकल लोग पोलीथीन की थैलियों में सब्जियों व फलों के छिलके बाहर फैंक देते हैं. भूखी होने के कारण गाय इन्हें थैली सहित निगल जाती है जिससे इनका पाचन तंत्र अवरुद्ध हो जाता है तथा जान भी जा सकती है.  अतः लोगों को चाहिए कि वे अपनी गायों के लिए चारे का प्रबंध घर पर ही करें.  बाहर खुले में प्यास लगने पर गाय पोखर या नाली का प्रदूषित जल पी कर बीमार हो सकती हैं क्योंकि इस प्रकार कई विषैले एवं भारी धातुओं के रसायन इनके शरीर में प्रवेश कर सकते हैं. अतः इन परिस्थितियों में इनके कल्याण की उपेक्षा करना उचित नहीं है.
नर बछड़े
संकर नस्ल की गायों को उत्पादित करते समय जो नर बछड़े पैदा होते हैं, उनकी कोई उपयोगिता नहीं होती. परिणाम-स्वरुप ऐसे बछड़ों को या तो खाने के लिए पर्याप्त आहार नहीं मिलता या इन्हें सड़कों पर आवारा छोड़ दिया जाता है. कुछ लोग इन्हें यहाँ से पकड़ कर बूचड़-खाने में भेज देते हैं. यह सब आर्थिक कारणों से होता है क्योंकि कोई भी डेयरी किसान अनुत्पादक पशुओं को चारा नहीं खिलाना चाहता. इन बछड़ों की अल्पायु एक नैतिकता से जुडी समस्या बन गई है. क्या प्रसवोपरांत इन बछड़ों को सामान्य देख-भाल पाने का अधिकार नहीं है? क्या इनका कल्याण किसी विवेकपूर्ण ढंग से सम्भव नहीं है? आज ऐसे कई प्रश्नों का हल खोजने के लिए एक सार्थक पहल की आवश्यकता है. प्रजनन करवाते समय ऐसे वीर्य का उपयोग किया जा सकता है जिसमें बछड़ी पैदा होने की संभावनाएं अधिक हों. यदि फिर भी आवश्यक हो तो कुछ बछड़ों को प्रजनन हेतु उन्नत सांड के रूप में बड़ा किया जा सकता है. कुछ बछड़ों को बैल के रूप में चारा या गोबर उठाने के लिए डेयरी के काम में लाया जा सकता है.
पशु परिवहन
पशुओं को परिवहन द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय इनके कल्याण पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता जो सर्वथा अनुचित है. आवश्यकता से अधिक पशुओं को अपेक्षाकृत छोटे आकार के वाहनों में ठूंस-ठूंस कर भर दिया जाता है. कई घंटों की थका देने वाली यात्रा के बाद कुछ पशुओं की या तो मृत्यु हो जाती है या वे चलने-फिरने में सक्षम नहीं रहते. आजकल यूरोप में पशुओं की ढुलाई केवल विशेष प्रकार के वाहनों में ही की जा सकती है तथा प्रत्येक आठ घंटे के सफर के बाद इन्हें अनिवार्यतः विश्राम दिया जाता है. भारतवर्ष में पशु कल्याण संबंधी क़ानून तो हैं परन्तु इनका अनुपालन कड़ाई से नहीं होता है,  जिसके कारण पशुओं को बहुत कष्ट झेलना पड़ता है. सफर के दौरान पशुओं को हिलने-जुलने हेतु पर्याप्त जगह देना आवश्यक है. अतः परिवहन के दौरान किसी प्रकार के बॉक्स या क्रेट उपयोग में नहीं लाए जा सकते क्योंकि ये पशुओं के लिए आरामदेह नहीं होते. इसी प्रकार लंबी यात्रा के दौरान पशुओं के लिए पर्याप्त चारे एवं जल की व्यवस्था भी होनी चाहिए.
दुग्ध-दोहन
गायों से दूध प्राप्त करते समय इनके कल्याण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है. यदि दुग्ध-दोहन के समय पशु को कोई पीड़ा अथवा तनाव न हो तो यह अधिक मात्रा में दूध देता है. हाथों से दूध दुहते समय पशुओं को कोई पीड़ा नहीं होनी चाहिए. दूध निकालने का समय एवं ढंग न केवल यथासम्भव आरामदेह हो बल्कि यह पशु-अयन के स्वास्थ्य के प्रति भी संवेदनशील होना चाहिए. यदि दुग्ध-दोहन के दौरान स्वच्छता पर पर्याप्त ध्यान न दिया जाए तो पशुओं में थनैला रोग होने की संभावना बढ़ सकती है. आजकल मशीन द्वारा दूध निकाला जाता है ताकि कार्य शीघ्रता एवं सुगमता से संपन्न हो सके. यदि दुधारू गायों को इसकी आदत हो जाए तो मशीन मिल्किंग पशुओं के लिए अपेक्षाकृत अधिक आरामदायक होती है.
जैव-विविधता
भारत में गायों की बहुत-सी नस्लें मिलती हैं जो अपने क्षेत्र के वातावरण के अनुकूल होती हैं. इन सभी नस्लों की अपनी विशिष्ट पहचान तथा उपयोगिता होती है. कोई नस्ल केवल अधिक दूध उत्पादन के लिए होती है तो कोई खेतों में काम करने के लिए. अतः किसानों को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप ही इन नस्लों का चयन करना चाहिए. यदि गर्म इलाकों के पशुओं को सर्द स्थानों पर रहने के लिए भेजा जाए तो इससे उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. इसी प्रकार सर्द वातावरण में अनुकूलित पशु अधिक गर्मी झेलने में अक्षम होते हैं. आजकल डेयरी फ़ार्म को एक व्यवसाय के रूप में अपनाते समय इन सब बातों पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है ताकि पशुओं के कल्याण के साथ कोई समझौता न करना पड़े. प्रजनन करवाते समय यह सोचना चाहिए कि कहीं हम अधिक दुग्ध-उत्पादन के लालच में अनावश्यक संकर प्रजनन द्वारा गौवंशीय पशुओं की जैव-विविधता को कोई गंभीर ख़तरा तो उत्पन्न नहीं कर रहे हैं. यदि गोवंश की विशेष नस्लों में उसी नस्ल के चयनित सांडों द्वारा प्रजनन करवाया जाए तो हमें उत्तम गुणों के पशु प्राप्त हो सकते हैं तथा ऐसा करने से जैव-विविधता भी बनी रहती है.
उन्नत पशु प्रबंधन
आजकल बड़े डेयरी फार्मों पर आधुनिक एवं विकसित पशु प्रबंधन प्रणालियाँ अपनाई जाती हैं. इन प्रणालियों से दैनिक कार्यों का निष्पादन तीव्रता से सम्भव है परन्तु कई बार पशुओं को भारी तनाव भी झेलना पड़ सकता है. पशुओं को सींग रहित करने का कार्य किसी भी उन्नत डेयरी फ़ार्म के लिए नितांत आवश्यक हो सकता है. सींग रहित पशु आपस में लड़ाई नहीं करते जिससे इन्हें चोट लगने का कोई ख़तरा नहीं होता. परन्तु व्यस्क पशुओं के सींग काटने से उन्हें बहुत कष्ट होता है. सींगो को हटाने का काम यथासम्भव जन्म के एक माह के अंदर संपन्न कर लेना चाहिए ताकि पशुओं को न्यूनतम पीड़ा हो. इसी प्रकार विभिन्न टीकाकरण कार्य करते समय पशुओं को भय-मुक्त वातावरण में रखना आवश्यक है ताकि ये सब गतिविधियां इनके लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकें. पशुओं को पोषण एवं जल की आपूर्ति भी भली-भांति की जानी चाहिए ताकि वे अपनी इच्छा एवं आवश्यकतानुसार चारा व जल प्राप्त कर सकें. कई बार चारा चरने की जगह फर्श से अधिक ऊँची होती है जिसमें पशुओं को चरने में कठिनाई हो सकती है. चारा एवं जल इस प्रकार से व्यवस्थित होना चाहिए कि इसके लिए पशु को किसी प्रकार का संघर्ष न करना पड़े. पशुओं के लिए धूप एवं छाँव की आवश्यकता भी मानव की तरह ही होती है, अतः इन्हें भी उसी प्रकार अधिक गर्मी एवं सर्दी से बचाया जाना चाहिए.

आजकल शहरों में कई लोग अपने अनुत्पादित पशुओं को बाहर आवारा छोड़ देते हैं. ये पशु सड़कों एवं बाज़ारों में न केवल दुर्घटनाओं का कारण बनते हैं, बल्कि इन्हें कई दिन तक भूखा भी रहना पड़ता है. ये पशु पर्याप्त पोषण न मिलने से तनावग्रस्त हो जाते हैं तथा कई बार आपस में लड़ने लगते हैं. ऐसे पशुओं को तुरंत निकटस्थ गौशाला में भेज देना चाहिए ताकि वहाँ इन्हें बेहतर पोषण प्राप्त हो सके. निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण मानवता का कल्याण पशुओं के समुचित कल्याण में निहित है.

Tuesday, January 5, 2016

गायों को सर्दी के तनाव से बचाएं!

जब सर्दियों में तापमान शून्य डिग्री सेंटीग्रेड के आस-पास होता है तो हमें गायों के दुग्ध-उत्पादन एवं आहार दक्षता पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती है. अन्य स्तनधारी जीवों की भांति गाय भी एक समतापी प्राणी है तथा इसे अपने शरीर का तापमान स्थिर रखने की आवश्यकता होती है. गाय का सामान्य तापमान लगभग 38 डिग्री सेंटीग्रेड होता है. जब वातावरणीय तापमान 38 डिग्री सेंटीग्रेड के करीब होता है तो पशु को अपना दैहिक तापमान बनाए रखने हेतु कोई अतिरिक्त ऊर्जा का व्यय नहीं करना पड़ता किन्तु इस तापमान में गिरावट के आरम्भ होते ही इन्हें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होने लगती है. इस ताप-परिधि को उष्मा-उदासीन अथवा ‘थर्मो-न्यूट्रल’ ज़ोन कहा जाता है. “थर्मो-न्यूट्रल ज़ोन” के अंतर्गत पशु अपने व्यवहार में परिवर्तन लाते हैं. जैसे सर्दी से बचाव हेतु वे अपने शरीर पर घने बाल उगा लेते हैं जबकि इनकी आहार ग्राह्यता पहले जैसी ही बनी रहती है. परन्तु उदासीन ताप परिधि से कम तापमान होने पर पशु को बहुत ठण्ड का अनुभव होने लगता है. ठंडी से बचने के लिए पशु अपनी उपचय दर बढाता है ताकि शरीर में गर्मी पैदा की जा सके. इसके कारण इसकी आहार या ऊर्जा आवश्यकता बढ़ने लगती है.

शीत-जनित तनाव का सामना करने हेतु सभी पशुओं की क्षमता भिन्न-भिन्न हो सकती है. शीत-प्रभावी तापमान वायु के तापमान पर निर्भर करता है. यदि वायु का तापमान पशु के दैहिक तापमान से अत्यधिक कम है तो शीत-जनित तनाव की संभावना भी अधिक होती है. तीव्र गति से चलने वाली ठंडी हवाएं पशु का दैहिक तापमान बहुत जल्दी ही कम कर देती हैं. यदि ऐसे में पशु को ठण्ड से न बचाया जाए तो यह न केवल इनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है अपितु उत्पादकता को भी कम कर सकता है. उदाहरण के लिए अगर वायु की गति 16 किलोमीटर प्रति घंटा हो तो 4 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान पशु को -2 डिग्री सेंटीग्रेड के बराबर लगता है, बशर्ते पशु के शरीर के बाल सूखे एवं घने हों. अतः गायों को तेज हवाओं एवं सूखे का सामना करने से पहले अपने दैहिक भार एवं तापमान को सामान्य बनाए रखने हेतु अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है अन्यथा ये शीघ्र ही शीत-जनित तनाव की शिकार हो सकती हैं. विभिन्न पशुओं की सर्दी सहने की क्षमता निम्न-लिखित कारकों पर निर्भर करती है.
अनुकूलन
जो गऊएँ शरद स्थानों पर रहती हैं वे अपने शरीर पर लंबे व घने बाल उगा लेती हैं ताकि इन्हें ठंडे मौसम में उष्मा के प्रति एक कुचालक आवरण मिल सके. बालों के इस आवरण से उनके शरीर की उष्मा में कोई क्षति नहीं होती परन्तु इन बालों का साफ़ एवं सूखा होना आवश्यक है. यदि बालों पर कोई गंदगी या नमी हो तो इनकी कुचालकता में कमी आ जाती है तथा इन्हें अन्य पशुओं की भांति सर्दी का अनुभव होने लगता है. जो पशु गर्म स्थानों पर रहने के लिए अनुकूलित हों, उनके शरीर में चर्बी का जमाव भी अपेक्षाकृत कम होता है तथा वे ठंडे स्थानों पर जाने पर तनाव ग्रस्त हो सकते हैं. अतः गायों को शीत-जनित तनाव से बचाने के लिए इनकी विभिन्न नस्लों को उन प्राकृतिक वातावरणीय परिस्थितियों में रखना चाहिए जिसके लिए ये अनुकूलित होती हैं. सर्दियों में ठंडे वातावरण के प्रति अनुकूलित न होने के कारण पशु शीत-जनित तनाव का शिकार हो सकते हैं.  
चर्बी
जिन पशुओं के शरीर पर चर्बी की मोटी परत होती है, वे सर्दी का सामना आसानी से कर लेते हैं क्योंकि चर्बी उष्मा की कुचालक होती है. चर्बी शरीर के आतंरिक भागों तथा पर्यावरण के बीच एक दीवार की भांति पशु को सर्दी से बचाती है. सर्दियों में आहार की आपूर्ति कम होने पर पशु इस चर्बी का क्षरण करके अपनी उपचय दर में वृद्धि करते हैं जिससे प्राप्त उष्मा का उपयोग दैहिक तापमान को सामान्य बनाए रखने हेतु किया जाता है.
उपचय दर
जब पशु ठंडे वातावरण में होते हैं तो ये अपनी उपचय दर बढ़ा लेते हैं ताकि अधिक उष्मा के उत्पादन से इनका दैहिक तापमान स्थिर रह सके. उपचय दर बढ़ने से पशु की भूख भी बढ़ जाती है तथा इसे अधिक ऊर्जायुक्त आहार की आवश्यकता पड़ती है.
शीत-जनित तनाव
यदि शरद ऋतु में दैहिक तापमान सामान्य से कम हो जाए तो ऊष्मा-अल्पता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. अधिक सर्दी में गायों का दैहिक तापमान 30-32 डिग्री सेंटीग्रेड होना आम बात है. इसे मामूली ऊष्मा-अल्पता  या “माइल्ड हाइपोथर्मिया” भी कहा जाता है. जब दैहिक तापमान 20 डिग्री सेंटीग्रेड अथवा इससे कम होने लगे तो इसे अत्यधिक ऊष्मा-अल्पता या “सीवियर हाइपोथर्मिया” कहते हैं. जब पशु का दैहिक तापमान 28 डिग्री सेंटीग्रेड से कम हो जाए तो यह स्वयं अपने ताप को सामान्य रखने में असमर्थ होता है. अतः इसके सामान्य तापमान को बनाए रखने हेतु इसे गर्म द्रव दिए जाते हैं तथा इसके चारों ओर का वातावरण भी गर्म रखा जाता है. ऊष्मा-अल्पता में पशु की दैहिक क्रियाएँ मंद होने लगती हैं तथा उपचय दर बहुत कम हो जाती है. शरीर के सतही भागों जैसे थन, वृष्ण, कानों एवं पूंछ की तरफ होने वाले रक्त प्रवाह में कमी होने लगती है ताकि उष्मा की हानि को रोका जा सके. इन परिस्थितियों में रक्त की अधिकतम मात्रा शरीर के आतंरिक भागों को गर्म रखने हेतु प्रयुक्त होती है. यदि ऊष्मा-अल्पता अधिक हो तो ह्रदय एवं श्वास गति में कमी आने के कारण पशु बे-सुध हो जाते हैं तथा इनकी मृत्यु भी हो सकती है. कई बार पशुओं में ‘हाइपोथर्मिया’ के लक्षण तो दिखाई नहीं देते परन्तु वातावरणीय तापमान के अत्यधिक कम होने से ये अपनी रख-रखाव ऊर्जा आवश्यकता को बढ़ा लेते हैं. परिणामस्वरूप पशु अपने दैहिक भार में गिरावट को रोकने के लिए अधिक ऊर्जायुक्त आहार लेने लगते हैं जिससे इनकी शुष्क पदार्थ ग्राह्यता बढ़ जाती है. यह सर्दी से बचाव हेतु आवश्यक भी है. इन परिस्थितियों में गायों के पोषण पर होने वाले खर्च में वृद्धि होती है तथा ये इस प्रकार अपने दैहिक भार में कमी को रोकने में सफल रहती हैं.
अनुसन्धान द्वारा ज्ञात हुआ है कि न्यूनतम समीक्षात्मक तापमान में प्रत्येक डिग्री सेंटीग्रेड की कमी होने पर पशु को अपनी ऊर्जा आवश्यकता में 2% की वृद्धि करनी पड़ती है. इन परिस्थितियों में पशुओं को अतिरिक्त ऊर्जा की आपूर्ति दाने द्वारा की जा सकती है क्योंकि ये अधिक मात्रा में चारा ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं. यदि पशुओं को बेहतर गुणवत्ता का आहार न मिले तो इनकी आहार ग्राह्यता में कमी हो सकती है तथा इनका दैहिक भार भी कम होने लगता है. शरद वातावरण में पशु अधिक गर्मी उत्पन्न करने के लिए अपनी दैहिक चर्बी का क्षरण करने लगता है ताकि इसे उपचय वृद्धि द्वारा उष्मा प्राप्त हो सके. इस उष्मा से पशु अपने दैहिक तापमान को सामान्य बनाए रखने हेतु उपयोग कर सकता है. ऎसी गायों के शरीर पर सर्दी से बचाव हेतु बालों का आवरण भी अपेक्षाकृत कम होता है तथा ये अपना दैहिक भार तीव्रता से कम करने लगती हैं. जो गऊएँ सर्दी से बचने के लिए अपने दैहिक भार में कमी करती हैं, उन्हें प्रसव क्रिया में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. जन्म के समय इनके बछड़ों का भार कम होता है तथा इनमें मृत्यु दर अधिक होती है. ये गऊएँ अपेक्षाकृत कम मात्रा में खीस उत्पादित करती हैं जिसकी गुणवत्ता खराब होने के कारण नवजात बछड़े अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाते. यदि ये जीवित बच भी जाएँ तो इन बछड़ों के दैहिक भार में वृद्धि दर काफी कम होती है. ये गऊएँ प्रसवोपरांत मद्काल लक्षण प्रकट करने में अधिक समय लेती हैं तथा देर से ग्याभिन होती हैं. इन पशुओं की प्रजनन क्षमता भी कम होती है. अतः ठण्ड से बचाने के लिए पशुओं का प्रबंधन बेहतर ढंग से किया जाना चाहिए. शीत-जनित तनाव से बचने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है.
·         पशुओं को यथासम्भव सर्दी से बचाएं. इनके दैहिक तापमान के न्यूनतम समीक्षात्मक स्तर तक पहुँचाने से पहले ही इन्हें अधिक ऊर्जायुक्त आहार जैसे दाने आदि की आपूर्ति आरम्भ कर देनी चाहिए.
·         पशुओं को ठंडी हवाओं से बचाएं. ठंडी हवा से दैहिक ताप में कमी होती है जिससे इन्हें तनाव हो सकता है.
·         सर्दियों में गायों के लेटने व बैठने के स्थान पर पुआल आदि बिछानी चाहिए ताकि ये अपनी दैहिक उष्मा का संरक्षण करके सर्दी से बच सकें.
·         सर्दी से बचाव के लिए पशुओं के शरीर पर जूट की बोरी या मोटे कपडे का आवरण रखा जा सकता है.
·         गायों के शरीर को साफ़-सुथरा व सूखा रखें. इनके बाल गंदे व गीले होने पर सर्दी को रोकने में असमर्थ होते हैं. इनके लिए सर्दियों की धूप अच्छी होती है.
·         सर्दियों में स्वच्छ पेय जल आपूर्ति अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है. पानी की कमी होने पर पशुओं की आहार ग्राह्यता भी कम होने लगती है. पशुओं को पीने के लिए ताजा पानी देना चाहिए क्योंकि यह अधिक ठंडा नहीं होता.

सर्दियों में वातावरणीय तापमान को नियंत्रित करना असंभव होता है परन्तु फिर भी पशुओं को शीत-जनित तनाव से बचाने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए. पशुओं को सर्दी से बचा कर हम इनके पोषण पर होने वाले खर्चों में कमी करके इनकी उत्पादक क्षमता में वृद्धि कर सकते हैं.  

Monday, January 4, 2016

आधुनिक डेयरी फार्मिंग

यथार्थ डेयरी फार्मिंग के अंतर्गत बेहतर तकनीकी के उपयोग से परम्परागत पशु प्रबंधन प्रणाली में सुधार लाया जा सकता है ताकि फ़ार्म की उत्पादकता बढ़ाई जा सके. पशुओं के पूर्ण झुण्ड के स्वास्थ्य की निगरानी करने की परम्परा आजकल पुरानी हो गई है क्योंकि इससे वास्तविक एवं अनुमानित परिणामों में भेद करना कठिन होता है. आधुनिक डेयरी फार्मिंग में प्रत्येक पशु के स्वास्थ्य एवं उत्पादन पर निगरानी रखी जाती है ताकि डेयरी व्यवसाय अधिक लाभकारी हो सके. गायों की अलग-अलग निगरानी रखने के कई लाभ हैं. इस प्रक्रिया में रुग्ण पशुओं की पहचान करके इन्हें झुण्ड से अलग कर दिया जाता है ताकि अन्य गायों के स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े. प्रसवकाल में प्रत्येक गाय की निगरानी की जाती है ताकि प्रसवोपरांत उत्पन्न हुए बछड़ों की मृत्यु दर बढ़ने न पाए. प्रत्येक गाय को उसकी आवश्यकतानुसार आहार दिया जाता है ताकि अधिकतम दुग्ध-उत्पादन सुनिश्चित किया जा सके. प्रत्येक गाय द्वारा ग्रहण किए गए चारे एवं दुग्ध-उत्पादन से वास्तविक लाभ की स्थिति का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. इसकी सहायता से डेयरी फ़ार्म के बजट का आकलन, दूध-उत्पादन का पूर्वानुमान एवं पशुओं की आहार आवश्यकताओं का सटीक अनुमान भी लगाया जा सकता है. संसाधनों के युक्तिसंगत उपयोग एवं प्रबंधन हेतु डेयरी के दुग्ध-उत्पादन का पूर्वानुमान लगाना अत्यंत आवश्यक है. पशुओं के आहार को संतुलित रखना आवश्यक है ताकि इनकी खुराक में सुधार करके उत्पादकता बढ़ाई जा सके. स्वस्थ गाय सदैव अधिक आहार ग्रहण करती है तथा अधिक दूध देती है. प्रत्येक गाय द्वारा ग्रहण किए गए आहार एवं दुग्ध-उत्पादन समंधी आंकड़ों से पशुओं के लिए अधिक उत्पादकता वाला मिश्रित आहार तैयार किया जा सकता है. इस प्रकार तैयार किए गए राशन में पोषक तत्त्वों का युक्तिसंगत उपयोग होता है तथा आहार का कोई भी भाग व्यर्थ नहीं होता.
पशुओं को परोसे गए एवं बचे हुए आहार से इसकी ग्राह्यता अनुमान लगाया जा सकता है परन्तु परोसने और खिलाते समय जो आहार व्यर्थ होता है, उसका सटीक आकलन नहीं हो पाता जो प्रत्येक पशु की उत्पादन क्षमता के सही अनुमान हेतु अत्यंत आवश्यक है. व्यर्थ होने वाला चारा गल-सड़ जाता है जबकि इसे गाय पर होने वाले खर्च में जोड़ दिया जाता है. आजकल चारा ग्राह्यता सम्बन्धी आंकड़े एक विशेष प्रकार के स्वचालित इलेक्ट्रोनिक उपकरण द्वारा एकत्र किए जाते हैं जिसमें किसी प्रकार की गलती की सम्भावना नहीं रहती. प्रत्येक गाय द्वारा खाए गए चारे का पता लगाने के लिए रेडियो फ्रीक्वेंसी पहचान जिसे आर एफ आई डी कहते हैं, का उपयोग किया जाता है. गाय के कान में टैग की तरह एक आर एफ आई डी ट्रांसपोंडर लगा दिया जाता है. बाड़े के अंदर ही किसी स्थान पर आर.एफ.आई.डी. रीडर लगा होता है जो प्रत्येक गाय की स्थिति का आकलन करता रहता है. कुछ ऐसे बिछावन भी तैयार किए गए हैं जिन्हें चारा चरने वाले फीडर के साथ जोड़ कर बिछा देते हैं तथा यह प्रत्येक गाय द्वारा चारा चरने में व्यतीत किए गए समय को रिकॉर्ड करता रहता है. इससे प्रत्येक गाय द्वारा ग्रहण किए गए चारे की मात्रा ज्ञात हो सकती है. इसकी सहायता से दुग्ध-उत्पादन, आहार दक्षता, पशु स्वास्थ्य एवं डेयरी के दैनिक लाभ के विषय में भी जानकारी मिल सकती है. आजकल ऐसे कार्य एक मशीन की सहायता से किए जाते हैं ताकि पशुओं की दिनचर्या में किसी प्रकार का व्यवधान न हो. इसमें वांछित स्थान पर कैमरे लगे होते हैं जो एक कम्पूटर की सहायता से विडियो निगरानी का काम करते हैं. कैमरे द्वारा रिकॉर्ड किया गया विडियो त्रि-आयामी तस्वीरें कम्पूटर को प्रेषित करता है.  इनके द्वारा दिखाई देने वाले चित्रों से कैमरे की दूरी का सटीक अनुमान भी लगाया जा सकता है. इस प्रकार प्रत्येक गाय द्वारा ग्रहण किए गए चारे की सही मात्रा ज्ञात हो सकती है. पशुओं के लिए कम्प्यूटरीकृत तथा यांत्रिक फीड स्टाल अपनाकर प्रत्येक गाय द्वारा खाए गए चारे की मात्रा एवं स्वास्थ्य पर निगरानी रखी जा सकती है. परम्परागत प्रबंधन पद्धति में व्यर्थ नष्ट हो रहे चारे के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती जबकि इससे डेयरी फ़ार्म की आर्थिकी अत्यधिक प्रभावित होती है. गाय की दैनिक पोषण ग्राह्यता की निगरानी द्वारा उनके स्वस्थ या अस्वस्थ होने की जानकारी भी मिलती रहती है जिससे इनका तुरन्त उपचार किया जा सकता है.  

जब दूध सस्ता हो तो किसान क्या करें?

हमारे डेयरी किसान गाय और भैंस पालन करके अपनी मेहनत से अधिकाधिक दूध उत्पादित करने में लगे हैं परन्तु यह बड़े दुःख की बात है कि उन्हें इस ...